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लेखांकन के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं? आधारभूत प्रमुख सिद्धांत & प्रकार, लेखांकन समीकरण क्या है?

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लेखांकन के सिद्धांत का वर्णन करें- लेखांकन किसे कहते है?

लेखा शास्त्र शेयर धारकों और प्रबंधकों आदि के लिए किसी व्यावसायिक इकाई के बारे में वित्तीय जानकारी संप्रेषित करने की कला है। लेखांकन को ‘व्यवसाय की भाषा’ कहा गया है। हिन्दी में ‘एकाउन्टैन्सी’ के समतुल्य ‘लेखाविधि’ तथा ‘लेखाकर्म’ शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।

लेखाशास्त्र गणितीय विज्ञान की वह शाखा है जो व्यवसाय में सफलता और विफलता के कारणों का पता लगाने में उपयोगी है। लेखाशास्त्र के सिद्धांत व्यावसयिक इकाइयों पर व्यावहारिक कला के तीन प्रभागों में लागू होते हैं, जिनके नाम हैं, लेखांकन, बही-खाता (बुक कीपिंग), तथा लेखा परीक्षा (ऑडिटिंग)।

Golden Rules of Accounting in Hindi लेखांकन के सिद्धांत

“अकाउंटेंट” शब्द फ़्रांसिसी शब्द Compter से व्युत्पन्न है, जो मूलतः लैटिन शब्द Computare से उद्भूत है। पहले यह शब्द अंग्रेज़ी में “अकॉम्पटेंट” के रूप में लिखा जाता था, लेकिन समय की प्रक्रिया के साथ-साथ यह शब्द जिसका उच्चारण “p” को छोड़कर किया जाता था, धीरे-धीरे उच्चारण एवं वर्तनी दोनों में ही इसके वर्तमान स्वरूप में बदल गया।

लेखांकन का अर्थ क्या है एवं परिभाषा

आधुनिक व्यवसाय का आकार इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें सैकड़ों, सहस्त्रों व अरबों व्यावसायिक लेनदेन होते रहते हैं। इन लेन देनों के ब्यौरे को याद रखकर व्यावसायिक उपक्रम का संचालन करना असम्भव है। अतः इन लेनदेनों का क्रमबद्ध अभिलेख (records) रखे जाते हैं उनके क्रमबद्ध ज्ञान व प्रयोग-कला को ही लेखाशास्त्र कहते हैं। लेखाशास्त्र के व्यावहारिक रूप को लेखांकन कह सकते हैं। अमेरिकन इन्स्ट्टीयूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक अकाउन्टैन्ट्स (AICPA) की लेखांकन शब्दावली, बुलेटिन के अनुसार ‘‘लेखांकन उन व्यवहारों और घटनाओं को, जो कि कम से कम अंशतः वित्तीय प्रकृति के है, मुद्रा के रूप में प्रभावपूर्ण तरीके से लिखने, वर्गीकृत करने तथा सारांश निकालने एवं उनके परिणामों की व्याख्या करने की कला है।’’

Accounting Meaning in Hindi आधारभूत लेखांकन समीकरण क्या है?

इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक कला है, विज्ञान नहीं। इस कला का उपयोग वित्तीय प्रकृति के मुद्रा में मापनीय व्यवहारों और घटनाओं के अभिलेखन, वर्गीकरण, संक्षेपण और निर्वचन के लिए किया जाता है।

स्मिथ एवं एशबर्न ने उपर्युक्त परिभाषा को कुछ सुधार के साथ प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘लेखांकन मुख्यतः वित्तीय प्रकृति के व्यावसायिक लेनदेनों और घटनाओं के अभिलेखन तथा वर्गीकरण का विज्ञान है और उन लेनदेनें और घटनाओं का महत्वपूर्ण सारांश बनाने, विश्लेषण तथा व्याख्या करने और परिणामों को उन व्यक्तियों को सम्प्रेषित करने की कला है, जिन्हें निर्णय लेने हैं।’ इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन विज्ञान और कला दोनों ही है। किन्तु यह एक पूर्ण निश्चित विज्ञान न होकर लगभग पूर्ण विज्ञान है।

अमेरिकन एकाउन्टिग प्रिन्सिपल्स बोर्ड ने लेखांकन को एक सेवा क्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, ‘लेखांकन एक सेवा क्रिया है। इसका कार्य आर्थिक इकाइयों के बारे में मुख्यतः वित्तीय प्रकृति की परिणामात्मक सूचना देना है जो कि वैकल्पिक व्यवहार क्रियाओं (alternative course of action) में तर्कयुक्त चयन द्वारा आर्थिक निर्णय लेने में उपयोगी हो।’

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर लेखांकन को व्यवसाय के वित्तीय प्रकृति के लेन-देनों को सुनिश्चित, सुगठित एवं सुनियोजित तरीके से लिखने, प्रस्तुत करने, निर्वचन करने और सूचित करने की कला कहा जा सकता है।

लेखांकन के आधारभूत सिद्धांत आप क्या समझते हैं?

लेखांकन की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है –

लेखांकन कला और विज्ञान दोनों है

लेखांकन एक कला और विज्ञान दोनों है। कला के रूप में यह वित्तीय परिणाम जानने में सहायक होती है। इसमें अभिलिखित तथा वर्गीकृत लेन-देनों और घटनाओं का सारांश तैयार किया जाता है। उन्हें विश्लेषित किया जाता है तथा उनका निर्वचन किया जाता है। वित्तीय समंकों का विश्लेषण एवं निर्वचन लेखांकन की कला ही है जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव और योग्यता की आवश्यकता होती है। इसी तरह एक व्यवसाय के आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों को वित्तीय समंकों का अर्थ और इनके परिवर्तन इस प्रकार सम्प्रेषित करना जिससे कि वे व्यवसाय के सम्बन्ध में सही निर्णय लेकर बुद्धिमतापूर्ण कार्यवाही कर सकें, लेखांकन की कला ही है।

विज्ञान के रूप में यह एक व्यवस्थित ज्ञान शाखा है। इसमें लेनदेनों एवं घटनाओं का अभिलेखन, वर्गीकरण एवं संक्षिप्तिकरण के निश्चित नियम है। इन निश्चित नियमों के कारण ही लेखों का क्रमबद्ध व व्यवस्थित रूप से अभिलेखन किया जाता है। किन्तु यह एक ‘पूर्ण निश्चित’ (exact) विज्ञान न होकर ‘लगभग पूर्ण विज्ञान’ (exacting science) है।

लेखांकन की वित्तीय प्रकृति (Financial Character)

लेखांकन में मुद्रा में मापन योग्य वित्तीय प्रकृति की घटनाओं और व्यवहारों का ही लेखा किया जाता है। ऐसे व्यवहार जो वित्तीय प्रकृति के नहीं होते, उनका लेखा पुस्तकों में नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए, यदि एक संस्था के पास समर्पित व विश्वसनीय कर्मचारियों की एक टोली हो जो व्यवसाय के लिए बहुत उपयोगी है, का लेखा व्यवसाय की पुस्तकों में नहीं किया जायेगा क्योंकि यह वित्तीय प्रकृति की नहीं है तथा इसे मुद्रा में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

सेवा कार्य के रूप में

लेखांकन सिद्धान्त बोर्ड की परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक सेवा कार्य है। इसका उद्देश्य व्यावसायिक क्रियाओं के बारे में परिमाणात्मक वित्तीय सूचनाएं उपलब्ध कराना है। लेखांकन के अन्तिम उत्पाद अर्थात् वित्तीय विवरण (लाभ-हानि खाता व चिट्ठा) उनके लिए उपयोगी है जो वैकल्पिक कार्यों के बारे में निर्णय लेते हैं। लेखांकन स्वयं किसी धन का सृजन नहीं करता है, यद्यपि यह इसके उपयोगकर्ताओं को उपयोगी सूचना उपलब्ध कराता है जो इन्हें धन के सृजन एवं रख रखाव में सहायक होता है।

लेखांकन के उद्देश्य

लेखांकन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार है –

विधिवत अभिलेख रखना

प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन को पुस्तकों में क्रमबद्ध तरीके से लिखना व उचित हिसाब रखना लेखांकन का प्रथम उद्देश्य है। लेखांकन के अभाव में मानव स्मृति (याददास्त) पर बहुत भार होता जिसका अधिकांश दशाओं में वहन करना असम्भव होता। विधिवत अभिलेखन से भूल व छल-कपटों को दूर करने में सहायता मिलती है।
व्यावसायिक सम्पत्तियों को सुरक्षित रखना

लेखांकन व्यावसायिक सम्पत्तियों के अनुचित एवं अवांछनीय उपयोग से सुरक्षा करता है। ऐसा लेखांकन द्वारा प्रबन्ध को निम्न सूचनाएं प्रदान करने के कारण सम्भव होता है –

(१) व्यवसाय में स्वामियों के कोषों की विनियोजित राशि,

(२) व्यावसाय को अन्य व्यक्तियों को कितना देना है,

(३) व्यवसाय को अन्य व्यक्तियों से कितना वसूल करना है,

(४) व्यवसाय के पास स्थायी सम्पत्तियां, हस्तस्थ रोकड़, बैंक शेष तथा कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल एवं निर्मित माल का स्टॉक कितना है?

उपर्युक्त सूचना व्यवसाय स्वामी को यह जानने में सहायक होती है कि व्यवसाय के कोष अनावश्यक रूप से निष्क्रिय तो नहीं पड़े हैं।

शुद्ध लाभ या हानि का निर्धारण

लेखांकन अवधि के अन्त में व्यवसाय संचालन के फलस्वरूप उत्पन्न शुद्ध लाभ अथवा हानि का निर्धारण लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य है। शुद्ध लाभ अथवा हानि एवं निश्चित अवधि के कुछ आगमों एवं कुछ व्ययों का अन्तर होता है। यदि आगमों की राशि अधिक है तो शुद्ध लाभ होगा तथा विपरीत परिस्थिति में शुद्ध हानि। यह प्रबन्धकीय कुशलता तथा व्यवसाय की प्रगति का सूचक होता है। यही अंशधारियों में लाभांश वितरण का आधार होता है।

व्यवसाय की वित्तीय स्थिति का निर्धारण

लाभ-हानि खाते द्वारा प्रदत्त सूचना पर्याप्त नहीं है। व्यवसायी अपनी वित्तीय स्थिति भी जानना चाहता है। इसकी पूर्ति चिट्ठे द्वारा की जाती है। चिट्ठा एक विशेष तिथि को व्यवसाय की सम्पत्तियों एवं दायित्वों का विवरण है। यह व्यवसाय के वित्तीय स्वास्थ्य को जानने में बैरोमीटर का कार्य करता है।

विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायक

विवेकपूर्ण निर्णय लेने के लिए सम्बन्धित अधिकरियों एवं संस्था में हित रखने वाले विभिन्न पक्षकारों को वांछित सूचना उपलब्ध कराना, लेखांकन का उद्देश्य है। अमेरिकन अकाउंटिंग एसोसिएशन ने भी लेखांकन की परिभाषा देते हुए इस बिन्दु पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार,

‘‘लेखांकन सूचना के उपयोगकर्ताओं द्वारा निर्णयन हेतु आर्थिक सूचना को पहचानने, मापने तथा सम्प्रेषण की प्रक्रिया है।’’

लेखांकन की आवश्यकता

आधुनिक व्यापारिक क्रियाओं के सफल संचालन के लिए लेखांकन को एक आवश्यकता (छमबमेपजल) समझा जाता है। लेखांकन क्यों आवश्यक है, इसे निम्न तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता है –

(१) व्यापारिक लेन-देन को लिखित रूप देना आवश्यक होता है- व्यापार में प्रतिदिन अनगिनत लेन-देन होते हैं, इन्हें याद नहीं रखा जा सकता। इनको लिख लेना प्रत्येक व्यापारी के लिए आवश्यक होता है। पुस्तपालन के माध्यम से इन लेन-देनों को भली-भांति लिखा जाता है।

(२) बेईमानी व जालसाजी आदि से बचाव के लिए लेन-देनों का समुचित विवरण रखना होता है – व्यापार में विभिन्न लेन-देनों में किसी प्रकार की बेईमानी, धोखाधड़ी व जालसाजी न हो सके, इसके लिए लेन-देनों का समुचित तथा वैज्ञानिक विधि से लेखा होना चाहिए। इस दृष्टि से भी पुस्तपालन को एक आवश्यक आवश्यकता समझा जाता है।

(३) व्यापारिक करों के समुचित निर्धारण के लिए पुस्तकें आवश्यक होती हैं – एक व्यापारी अपने लेन-देनों के भली-भांति लिखने, लेखा पुस्तकें रखने तथा अन्तिम खाते आदि बनाने के बाद ही अपने कर-दायित्व की जानकारी कर सकता है। पुस्तपालन से लेन-देनों के समुचित लेखे रखे जाते हैं। विक्रय की कुल राशि तथा शुद्ध लाभ की सही व प्रामाणिक जानकारी मिलती है जिसके आधार पर विक्रय-कर व आयकर की राशि के निर्धारण में सरलता हो जाती है।

(४) व्यापार के विक्रय-मूल्य के निर्धारण में पुस्तपालन के निष्कर्ष उपयोगी होते हैं – यदि व्यापारी अपने व्यापार के वास्तविक मूल्य को जानना चाहता है या उसे उचित मूल्य पर बेचना चाहता है तो लेखा पुस्तकें व्यापार की सम्पत्तियों व दायित्वों आदि के शेषों के आधार पर व्यापार के उचित मूल्यांकन के आंकड़े प्रस्तुत करती है।

लेखांकन के लाभ

1. पूंजी या लागत का पता लगाना- समस्त सम्पत्ति (जैसे मशीन, भवन, रोकड़ इत्यादि) में लगे हुए धन में से दायित्व (जैसे लेनदार, बैंक का ऋण इत्यादि) को घटाकर किसी विशेष समय पर व्यापारी अपनी पूंजी मालूम कर सकता है।

2. विभिन्न लेन-देनों को याद रखने का साधन – व्यापार में अनेकानेक लेन-देन होते हैं। उन सबको लिखकर ही याद रखा जा सकता है और उनके बारे में कोई जानकारी उसी समय सम्भव हो सकती है जब इसे ठीक प्रकार से लिखा गया हो।

3. कर्मचारियों के छल-कपट से सुरक्षा- जब लेन-देनों को बहीखाते में लिख लिया जाता है तो कोई कर्मचारी आसानी से धोखा, छल-कपट नहीं कर सकता और व्यापारी को लाभ का ठीक ज्ञान रहता है। यह बात विशेषकर उन व्यापारियों के लिये अधिक महत्व की है जो अपने कर्मचारियों पर पूरी-पूरी दृष्टि नहीं रख पाते हैं।

4. समुचित आयकर या बिक्री कर लगाने का आधार- अगर बहीखाते ठीक रखे जायें और उनमें सब लेनदेन लिखित रूप में हों तो कर अधिकारियों को कर लगाने में सहायता मिलती है क्योंकि लिखे हुए बहीखाते हिसाब की जांच के लिए पक्का सबूत माने जाते हैं।

5. व्यापार खरीदने बेचने में आसानी – ठीक-ठीक बहीखाते रखकर एक व्यापारी अपने कारोबार को बेचकर किसी सीमा तक उचित मूल्य प्राप्त कर सकता है। साथ ही साथ खरीदने वाले व्यापारी को भी यह संतोष रहता है कि उसे खरीदे हुऐ माल का अधिक मूल्य नहीं देना पड़ा।

6. अदालती कामों में बहीखातों का प्रमाण (सबूत) होना- जब कोई व्यापारी दिवालिया हो जाता है (अर्थात् उसके ऊपर ऋण, उसकी सम्पत्ति से अधिक हो जाता है) तो वह न्यायालय में बहीखाते दिखाकर अपनी निर्बल स्थिति का सबूत दे सकता है और वह न्यायालय से अपने को दिवालिया घोषित करवा सकता है। उसके ऐसा करने पर उसकी सम्पत्ति उसके महाजनों के अनुपात में बंट जाती है और व्यापारी ऋणों के दायित्व से छूट जाता है। यदि बहीखाते न हों तो न्यायालय व्यापारी को दिवालिया घोषित करने में संदेह कर सकता है।

7. व्यापारिक लाभ-हानि जानना – बही खातों में व्यापार व लाभ-हानि खाते निश्चित समय के अन्त में बनाकर कोई भी व्यापारी अपने व्यापार में लाभ या हानि मालूम कर सकता है।

8. पिछले आँकड़ों से तुलना – समय-समय पर व्यापारिक आँकड़ों द्वारा अर्थात् क्रय-विक्रय, लाभ-हानि इत्यादि की तुलना पिछले सालों के आंकड़ों से करके व्यापार में आवश्यक सुधार किए जा सकते हैं।

9. वस्तुओं की कीमत लगाना- यदि व्यापारी माल स्वयं तैयार कराता है और उन सब का हिसाब बहीखाते बनाकर रखता है तो उसे माल तैयार करने की लागत मालूम हो सकती है। लागत के आधार पर वह अपनी निर्मित वस्तुओं का विक्रय मूल्य निर्धारित कर सकता है।

10. आर्थिक स्थिति का ज्ञान- बहीखाते रखकर व्यापारी हर समय यह मालूम कर सकता है कि उसकी व्यापारिक स्थिति संतोषजनक है अथवा नहीं।

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